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 November 29, 2020 

शिवानंद दास जी के मार्गदर्शन मे

अक्षय पात्र लक्ष्मी साधना शिविर

Akshaya Patra Lakshmi-Ganesh Sadhna Shivir

(Sat+Sun) 19th -20th Dec. 2020 at Vajreshwari near mumbai.


माता लक्ष्मी के अनेको स्वरूप होते है और अक्षय पात्र लक्ष्मी मे माता के सभी स्वरूप समाहित रहते है. इसलिये अक्षय पात्र लक्ष्मी के उपासक को लक्ष्मी व भगवान गणेश की कृपा से अनेको स्रोतो से धन की प्राप्ति होती है. इसके साथ ही धन से संबंधित सभी तरह के विवाद, कर्ज, दुकान -धंधे की रुकावट नष्ट होकर सुख-्समृद्धि की प्राप्ति होती है.

यह प्रयोग तांबे के कलश मे संपन्न करवाया जाता है. जो कि जीवन भर काम आता है. इसी अक्षय पात्र कलश पर १२५००० से लेकर ५५०००० तक जप हवन का अनुष्ठान होगा. इसमे भाग लेना किसी सौभाग्य से कम नही है. इसलिये एक बार अवश्य जरूर इस शिविर मे भाग लेकर अनुभव जरूर प्राप्त करे!

AKSHAY PATRA LAKSHMI SADHANA BOOKING

Pickup point-(8am) Hotel Hardik place, opp mira road railway station east. Mira road.

Shivir Location- https://goo.gl/maps/AWUTZNAyjky

Fees 8000/- Including- Sadhana samagri (Siddha Akshay patra lakshmi Yantra, Siddha Akshay patra lakshmi mala, Siddha Akshay patra lakshmi parad gutika, Akshay patra lakshmi asan, Siddha Chirmi beads, Gomati chakra, Tantrokta nariyal, siddha kaudi, Siddha Rakshasutra and more.) + Akshay patra lakshmi Diksha by Guruji+ Room Stay with Complementary Breakfast, Lunch, Dinner. (Husband-wife 12000/-) (Pay 1000/- booking and balance pay on shivir)

Call for booking-91 7710812329/ 91 9702222903

 February 16, 2020 

गणेश चालीसा पाठ

इस गणेश चालीसा का नियमित १ से ३ पाठ करने साधक के सभी विघ्न नष्ट होकर भौतिक सुख की प्राप्ति होती है

दोहा

जय गणपति सदगुणसदन, कविवर बदन कृपाल।

विघ्न हरण मंगल करण, जय जय गिरिजालाल॥

चौपाई
जय जय जय गणपति गणराजू।
मंगल भरण करण शुभ काजू॥1॥

जय गजबदन सदन सुखदाता।
विश्व विनायक बुद्घि विधाता॥2॥

वक्र तुण्ड शुचि शुण्ड सुहावन।
तिलक त्रिपुण्ड भाल मन भावन॥3॥

राजत मणि मुक्तन उर माला।
स्वर्ण मुकुट शिर नयन विशाला॥4॥

पुस्तक पाणि कुठार त्रिशूलं।
मोदक भोग सुगन्धित फूलं॥5॥

सुन्दर पीताम्बर तन साजित।
चरण पादुका मुनि मन राजित॥6॥

धनि शिवसुवन षडानन भ्राता।
गौरी ललन विश्व-विख्याता॥7॥

ऋद्घि-सिद्घि तव चंवर सुधारे।
मूषक वाहन सोहत द्घारे॥8॥

कहौ जन्म शुभ-कथा तुम्हारी।
अति शुचि पावन मंगलकारी॥9॥

एक समय गिरिराज कुमारी।
पुत्र हेतु तप कीन्हो भारी॥10॥

भयो यज्ञ जब पूर्ण अनूपा।
तब पहुंच्यो तुम धरि द्घिज रुपा॥11॥

अतिथि जानि कै गौरि सुखारी।
बहुविधि सेवा करी तुम्हारी॥12॥

अति प्रसन्न है तुम वर दीन्हा।
मातु पुत्र हित जो तप कीन्हा॥13॥

मिलहि पुत्र तुहि, बुद्धि विशाला।
बिना गर्भ धारण, यहि काला॥14॥

गणनायक, गुण ज्ञान निधाना।
पूजित प्रथम, रुप भगवाना॥15॥

अस कहि अन्तर्धान रुप है।
पलना पर बालक स्वरुप है॥16॥

बनि शिशु, रुदन जबहिं तुम ठाना।
लखि मुख सुख नहिं गौरि समाना॥17॥

सकल मगन, सुखमंगल गावहिं।
नभ ते सुरन, सुमन वर्षावहिं॥18॥

शम्भु, उमा, बहु दान लुटावहिं।
सुर मुनिजन, सुत देखन आवहिं॥19॥

लखि अति आनन्द मंगल साजा।
देखन भी आये शनि राजा॥20॥

निज अवगुण गुनि शनि मन माहीं।
बालक, देखन चाहत नाहीं॥21॥

गिरिजा कछु मन भेद बढ़ायो।
उत्सव मोर, न शनि तुहि भायो॥22॥

कहन लगे शनि, मन सकुचाई।
का करिहौ, शिशु मोहि दिखाई॥23॥

नहिं विश्वास, उमा उर भयऊ।
शनि सों बालक देखन कहाऊ॥24॥

पडतहिं, शनि दृग कोण प्रकाशा।
बोलक सिर उड़ि गयो अकाशा॥25॥

गिरिजा गिरीं विकल हुए धरणी।
सो दुख दशा गयो नहीं वरणी॥26॥

हाहाकार मच्यो कैलाशा।
शनि कीन्हो लखि सुत को नाशा॥27॥

तुरत गरुड़ चढ़ि विष्णु सिधायो।
काटि चक्र सो गज शिर लाये॥28॥

बालक के धड़ ऊपर धारयो।
प्राण, मंत्र पढ़ि शंकर डारयो॥29॥

नाम गणेश शम्भु तब कीन्हे।
प्रथम पूज्य बुद्घि निधि, वन दीन्हे॥30॥

बुद्धि परीक्षा जब शिव कीन्हा।
पृथ्वी कर प्रदक्षिणा लीन्हा॥31॥

चले षडानन, भरमि भुलाई।
रचे बैठ तुम बुद्घि उपाई॥32॥

धनि गणेश कहि शिव हिय हरषे।
नभ ते सुरन सुमन बहु बरसे॥33॥

चरण मातु-पितु के धर लीन्हें।
तिनके सात प्रदक्षिण कीन्हें॥34॥

तुम्हरी महिमा बुद्ध‍ि बड़ाई।
शेष सहसमुख सके न गाई॥35॥

मैं मतिहीन मलीन दुखारी।
करहुं कौन विधि विनय तुम्हारी॥36॥

भजत रामसुन्दर प्रभुदासा।
जग प्रयाग, ककरा, दुर्वासा॥37॥

अब प्रभु दया दीन पर कीजै।
अपनी भक्ति शक्ति कछु दीजै॥38॥

श्री गणेश यह चालीसा।
पाठ करै कर ध्यान॥39॥

नित नव मंगल गृह बसै।
लहे जगत सन्मान॥40॥

दोहा
सम्वत अपन सहस्त्र दश, ऋषि पंचमी दिनेश।

पूरण चालीसा भयो, मंगल मूर्ति गणेश॥

 February 16, 2020 

श्री गायत्री चालीसा

इस चालीसा का नियमित ३ पाठ करने वाला उपासक यहा सुख समृद्धि हमेशा बनी रहती है.

॥ दोहा ॥

ह्रीं श्रीं क्लीं मेधा प्रभा,जीवन ज्योति प्रचण्ड।

शान्ति कान्ति जागृत प्रगति,रचना शक्ति अखण्ड॥

जगत जननी मङ्गल करनि,गायत्री सुखधाम।

प्रणवों सावित्री स्वधा,स्वाहा पूरन काम॥

॥ चौपाई ॥

भूर्भुवः स्वः ॐ युत जननी।गायत्री नित कलिमल दहनी॥

अक्षर चौविस परम पुनीता।इनमें बसें शास्त्र श्रुति गीता॥

शाश्वत सतोगुणी सत रूपा।सत्य सनातन सुधा अनूपा॥

हंसारूढ सिताम्बर धारी।स्वर्ण कान्ति शुचि गगन-बिहारी॥

पुस्तक पुष्प कमण्डलु माला।शुभ्र वर्ण तनु नयन विशाला॥

ध्यान धरत पुलकित हित होई।सुख उपजत दुःख दुर्मति खोई॥

कामधेनु तुम सुर तरु छाया।निराकार की अद्भुत माया॥

तुम्हरी शरण गहै जो कोई।तरै सकल संकट सों सोई॥

सरस्वती लक्ष्मी तुम काली।दिपै तुम्हारी ज्योति निराली॥

तुम्हरी महिमा पार न पावैं।जो शारद शत मुख गुन गावैं॥

चार वेद की मात पुनीता।तुम ब्रह्माणी गौरी सीता॥

महामन्त्र जितने जग माहीं।कोउ गायत्री सम नाहीं॥

सुमिरत हिय में ज्ञान प्रकासै।आलस पाप अविद्या नासै॥

सृष्टि बीज जग जननि भवानी।कालरात्रि वरदा कल्याणी॥

ब्रह्मा विष्णु रुद्र सुर जेते।तुम सों पावें सुरता तेते॥

तुम भक्तन की भक्त तुम्हारे।जननिहिं पुत्र प्राण ते प्यारे॥

महिमा अपरम्पार तुम्हारी।जय जय जय त्रिपदा भयहारी॥

पूरित सकल ज्ञान विज्ञाना।तुम सम अधिक न जगमे आना॥

तुमहिं जानि कछु रहै न शेषा।तुमहिं पाय कछु रहै न कलेशा॥

जानत तुमहिं तुमहिं व्है जाई।पारस परसि कुधातु सुहाई॥

तुम्हरी शक्ति दिपै सब ठाई।माता तुम सब ठौर समाई॥

ग्रह नक्षत्र ब्रह्माण्ड घनेरे।सब गतिवान तुम्हारे प्रेरे॥

सकल सृष्टि की प्राण विधाता।पालक पोषक नाशक त्राता॥

मातेश्वरी दया व्रत धारी।तुम सन तरे पातकी भारी॥

जापर कृपा तुम्हारी होई।तापर कृपा करें सब कोई॥

मन्द बुद्धि ते बुधि बल पावें।रोगी रोग रहित हो जावें॥

दरिद्र मिटै कटै सब पीरा।नाशै दुःख हरै भव भीरा॥

गृह क्लेश चित चिन्ता भारी।नासै गायत्री भय हारी॥

सन्तति हीन सुसन्तति पावें।सुख संपति युत मोद मनावें॥

भूत पिशाच सबै भय खावें।यम के दूत निकट नहिं आवें॥

जो सधवा सुमिरें चित लाई।अछत सुहाग सदा सुखदाई॥

घर वर सुख प्रद लहैं कुमारी।विधवा रहें सत्य व्रत धारी॥

जयति जयति जगदम्ब भवानी।तुम सम ओर दयालु न दानी॥

जो सतगुरु सो दीक्षा पावे।सो साधन को सफल बनावे॥

सुमिरन करे सुरूचि बडभागी।लहै मनोरथ गृही विरागी॥

अष्ट सिद्धि नवनिधि की दाता।सब समर्थ गायत्री माता॥

ऋषि मुनि यती तपस्वी योगी।आरत अर्थी चिन्तित भोगी॥

जो जो शरण तुम्हारी आवें।सो सो मन वांछित फल पावें॥

बल बुधि विद्या शील स्वभाउ।धन वैभव यश तेज उछाउ॥

सकल बढें उपजें सुख नाना।जे यह पाठ करै धरि ध्याना॥

॥ दोहा ॥

यह चालीसा भक्ति युत,पाठ करै जो कोई।

तापर कृपा प्रसन्नता,गायत्री की होय॥

 February 11, 2020 

ललिता सहस्रनाम स्त्रोत

 

 February 10, 2020 

कृष्ण सहस्त्रनाम् पाठ

इस कृष्ण सहस्त्रनाम् का रोज नियमित रूप से एक बार पाठ करने से आकर्षण शक्ति के साथ सभी प्रकार की मनोकामना पूर्ण होती है.


कृष्णश्श्रीवल्लभश्शांर्गी विष्वक्सेनस्स्वसिद्धिदः।
क्षीरोदधामा व्यूहेशश्शेषशायी जगन्मयः॥1॥
भक्तिगम्यस्रीमूर्तिर्भा-रार्तवसुधास्तुतः।
देवदेवो दयासिन्धुर्देवदेवशिखामणिः॥2॥
सुखभावस्सुखाधारोमुकुन्दो मुदिताशयः।
अविक्रियः क्रियामूर्तिरध्यात्मस्वस्वरूपवान्‌॥3॥
शिष्टाभिलक्ष्यो भूतात्मा धर्मत्राणार्थचेष्टितः।
अन्तर्यामी कलारूपः कालावयवसाक्षिकः॥4॥
वसुधायासहरणो नारदप्रेरणोन्मुखः।
प्रभूष्णुर्नारदोद्गीतो लोकरक्षापरायणः॥5॥
रौहिणेयकृतानन्दो योगज्ञाननियोजकः।
महागुहान्तर्निक्षिप्तः पुराण व पुरात्मवान्‌॥6॥
शूरवंशैकधीश्शौरिः कंसशंकाविषादकृत्‌।
वसुदेवोल्लसच्छक्ति-र्देवक्यष्टमगर्भगः॥7॥
वसुदेवसुतश्श्रीमान्देवकीनन्दनो हरिः।
आश्चर्यबालश्श्रीवत्स-लक्ष्मवक्षाश्चतुर्भुजः॥8॥
स्वभावोत्कृष्टसद्भावः कृष्णाष्टम्यन्तसम्भवः।
प्राजापत्यर्क्षसम्भूतो निशीथसमयोदितः॥9॥
शंखचक्रगदापद्मपाणिः पद्मनिभेक्षणः।
किरीटी कौस्तुभोरस्कः स्फुरन्मकरकुण्डलः॥10॥
पीतवासा घनश्यामः कुंचितांचितकुन्तलः।
सुव्यक्तव्यक्ताभरणः सूतिकागृहभूषणः॥11॥
कारागारान्धकारघ्नः पितृप्राग्जन्मसूचकः।
वसुदेवस्तुतः स्तोत्रं तापत्रयनिवारणः॥12॥
निरवद्यः क्रियामूर्तिर्न्यायवाक्यनियोजकः।
अदृष्टचेष्टः कूटस्थो धृतलौकिकविग्रहः॥13॥
महर्षिमानसोल्लासो महीमंगलदायकः।
सन्तोषितसुरव्रातः साधुुचित्तप्रसादकः॥14॥
जनकोपायनिर्देष्टा देवकीनयनोत्सवः।
पितृपाणिपरिष्कारो मोहितागाररक्षकः॥15॥
स्वशक्तयुद्धाटिताशेषकपाटः पितृवाहकः।
शेषोरगफणाच्छत्रश्शेषोक्ताख्यासहस्रकः॥16॥
यमुनापूरविध्वंसी स्वभासोद्भासितव्रजः।
कृतात्मविद्याविन्यासो योगमायाग्रसम्भवः॥17॥
दुर्गानिवेदितोद्भावो यशोदातल्पशायकः।
नन्दगोपोत्सवस्फूर्तिर्व्रजानन्दकरोदयः॥18॥
सुजातजातकर्म श्रीर्गोपीभद्रोक्तिनिर्वतः।
अलीकनिद्रोपगमः पूतनास्तनपीडनः॥19॥
स्तन्यात्तपूतनाप्राणः पूतनाक्रोशकारकः।
विन्यस्तरक्षा गोधूलिर्यशोदाकरलालितः॥20॥
नन्दाघ्रातशिरोमध्यः पूतनासुगतिप्रदः।
बालः पर्यंकनिद्रालुर्मुखार्पितपदांगुलिः॥21॥
अंजनस्निग्धनयनः पर्यायांकुरितस्मितः।
लीलाक्षस्तरलालोकश्शटासुर भंजनः॥22॥
द्विजोदितस्वस्त्ययनो मंत्रपूतजलाप्लुतः।
यशोदोत्संगपर्यंको यशोदामुखवीक्षकः॥23॥
यशोदास्तन्यमुदितस्तृणावर्तादिदुस्सहः।
तृणावर्तासुरध्वंसी मातृविस्मयकारकः॥24॥
प्रशस्तनामकरणो जानुचंक्रमणोत्सुकः।
व्यालम्बिचूलिकारत्नो घोषगोपप्रहर्षणः॥25॥
स्वमुखप्रतिबिम्बार्थी ग्रीवाव्याघ्रनखोज्जुलः।
पंकानुलेपरुचिरो मांसलोरुकटीतटः॥26॥
घृष्टजानुकरद्वंद्वः प्रतिबिम्बानुकारकृत्‌।
अव्यक्तवर्णवाग्वृत्तिः स्मितलक्ष्यरदोद्नमः॥27॥
धात्रीकरसमालम्बी प्रस्खलचित्रचंक्रमः।
अनुरूपवयस्याढ्यश्चारुकौमारचापलः॥28॥
वत्सपुच्छसमाकृष्टो वत्सपुच्छविकर्षणः।
विस्मारितान्यव्यापारो गोपीगोपीमुदावहः॥29॥
अकालवत्सनिर्मोक्ता व्रजव्याक्रोशसुस्मितः।
नवनीतमहाचोरो दारकाहारदायकः॥30॥
पीठोलूखलसोपानः क्षीरभाण्डविभेदनः।
शिक्य माण्डसमकर्षी ध्वान्तागारप्रवेशकृत॥31॥
भूषारत्नप्रकाशाढ्यो गोप्युपालम्भभर्त्सितः।
परागधूसराकारो मृद्भक्षणकृतेक्षणः॥32॥
बालोक्तमृत्कथारम्भो मित्रान्तर्गूढविग्रहः।
कृतसन्त्रासलोलाक्षो जननीप्रत्ययावहः॥33।
मातृदृश्यात्तवदनो वक्रलक्ष्यचराचरः।
यशोदाललितस्वात्मा स्वयं स्वाच्छन्द्यमोहनः॥34॥
सवित्रीस्नेहसंश्लिष्टः सवित्रीस्तनलोलुपः।
नवनीतार्थनाप्रह्वो नवनीतमहाशनः॥35॥
मृषाकोप्रकम्पोष्ठो गोष्ठांगणविलोकनः।
दधिमन्थघटीभेत्ता किकिंणीक्काणसूचितः॥36॥
हैयंगवीनरसिको मृषाश्रुश्चौर्यशंकितः।
जननीश्रमविज्ञाता दामबन्धनियंत्रितः॥37॥
दामाकल्पश्चलापांगो गाढोलूखलबन्धनः।
आकृष्टोलूखनोऽनन्तः कुबेरसुतशापिवत्‌॥। 38॥
नारदोक्तिपरामर्शी यमलार्जुनभंजनः।
धनदात्मजसंघुष्टो नन्दमोचितबन्धनः॥39॥
बालकोद्गीतनिरतो बाहुक्षेपोदितप्रियः।
आत्मज्ञो मित्रवशगो गोपीगीतगुणोदयः॥40॥
प्रस्थानशकटारूढो वृन्दावनकृतालयः।
गोवत्सपालनैकाग्रो नानाक्रीडापरिच्छदः॥41॥
क्षेपणीक्षेपणप्रीतो वेणुवाद्यविशारदः।
वृषवत्सानुकरणो वृषध्वानिविडम्बनः॥42॥
नियुद्धलीलासंहृष्टः कूजानुकृतकोकिलः।
उपात्तहं सगमनस्सर्वजन्तुरुतानुकृत्‌॥43॥
भृंगानुकारी दध्यन्नचोरो वत्सपुरस्सरः।
बली बकासुरग्राही बकतालुप्रदाहकः॥44॥
भीतगोपार्भकाहूतो बकचंचुविदारणः।
बकासुरारिर्गोपालो बालो बालाद्भुतावहः॥45॥
बलभद्रसमाश्लिष्टः कृतक्रीडानिलायनः।
क्रीडासेतुनिधानज्ञः प्लवंगोत्प्लवनोऽद्भुतः॥46॥
कन्दुकक्रीडनो लुप्तनन्दादिभववेदनः।
सुमनोऽलंकृतशिराः स्वादुस्निग्धान्नशिक्यभृत्‌॥47॥
गुंजाप्रालम्बनच्छन्नः पिंछैरलकवेषकृत्‌।
वन्याशनप्रियश्श्रृंगरवाकारितवत्सकः॥48॥
मनोज्ञपल्लवोत्तं स्वपुष्पस्वेच्छात्तषट्पदः।
मंजुशिंजितमंजीरचरणः करकंकणः॥49॥
अन्योन्यशासनः कीड़ापटुः परमकैतवः।
प्रतिध्वानप्रमुदितः शाखाचतुरचंक्रमः॥50॥
अघदानवसंहर्ता त्रजविघ्नविनाशनः।
व्रजसंजीवनश्श्रेयोनिधिर्दानवमुक्तिदः॥51॥

 January 1, 2020 

इस शिव तांडव स्त्रोत पा पाठ करने से या सुनने मात्र से लाभ मिलना शुरु हो जाता है. इस स्त्रोत का रोज सुबह ११ पाठ अवश्य करे, ये आपकी सभी प्रकार की मनोकामना को पूर्ण करता है.

शिव ताण्डव स्तोत्र

जटा टवी गलज्जलप्रवाह पावितस्थले गलेऽव लम्ब्यलम्बितां भुजंगतुंग मालिकाम्‌।

डमड्डमड्डमड्डमन्निनाद वड्डमर्वयं चकारचण्डताण्डवं तनोतु नः शिव: शिवम्‌ ॥१॥

जटाकटा हसंभ्रम भ्रमन्निलिंपनिर्झरी विलोलवीचिवल्लरी विराजमानमूर्धनि।

धगद्धगद्धगज्ज्वल ल्ललाटपट्टपावके किशोरचंद्रशेखरे रतिः प्रतिक्षणं मम: ॥२॥

धराधरेंद्रनंदिनी विलासबन्धुबन्धुर स्फुरद्दिगंतसंतति प्रमोद मानमानसे।

कृपाकटाक्षधोरणी निरुद्धदुर्धरापदि क्वचिद्विगम्बरे मनोविनोदमेतु वस्तुनि ॥३॥

जटाभुजंगपिंगल स्फुरत्फणामणिप्रभा कदंबकुंकुमद्रव प्रलिप्तदिग्व धूमुखे।

मदांधसिंधु रस्फुरत्वगुत्तरीयमेदुरे मनोविनोदद्भुतं बिंभर्तुभूत भर्तरि ॥४॥

सहस्रलोचन प्रभृत्यशेषलेखशेखर प्रसूनधूलिधोरणी विधूसरां घ्रिपीठभूः।

भुजंगराजमालया निबद्धजाटजूटकः श्रियैचिरायजायतां चकोरबंधुशेखरः ॥५॥

ललाटचत्वरज्वल द्धनंजयस्फुलिंगभा निपीतपंच सायकंनम न्निलिंपनायकम्‌।

सुधामयूखलेखया विराजमानशेखरं महाकपालिसंपदे शिरोजटालमस्तुनः ॥६॥

करालभालपट्टिका धगद्धगद्धगज्ज्वल द्धनंजया धरीकृतप्रचंड पंचसायके।

धराधरेंद्रनंदिनी कुचाग्रचित्रपत्र कप्रकल्पनैकशिल्पिनी त्रिलोचनेरतिर्मम ॥७॥

नवीनमेघमंडली निरुद्धदुर्धरस्फुर त्कुहुनिशीथनीतमः प्रबद्धबद्धकन्धरः।

निलिम्पनिर्झरीधरस्तनोतु कृत्तिसिंधुरः कलानिधानबंधुरः श्रियं जगंद्धुरंधरः ॥८॥

प्रफुल्लनीलपंकज प्रपंचकालिमप्रभा विडंबि कंठकंध रारुचि प्रबंधकंधरम्‌।

स्मरच्छिदं पुरच्छिंद भवच्छिदं मखच्छिदं गजच्छिदांधकच्छिदं तमंतकच्छिदं भजे ॥९॥

अखर्वसर्वमंगला कलाकदम्बमंजरी रसप्रवाह माधुरी विजृंभणा मधुव्रतम्‌।

स्मरांतकं पुरातकं भावंतकं मखांतकं गजांतकांधकांतकं तमंतकांतकं भजे ॥१०॥

जयत्वदभ्रविभ्रम भ्रमद्भुजंगमस्फुरद्ध गद्धगद्विनिर्गमत्कराल भाल हव्यवाट्।

धिमिद्धिमिद्धि मिध्वनन्मृदंग तुंगमंगलध्वनिक्रमप्रवर्तित: प्रचण्ड ताण्डवः शिवः ॥११॥

दृषद्विचित्रतल्पयो र्भुजंगमौक्तिकमस्र जोर्गरिष्ठरत्नलोष्ठयोः सुहृद्विपक्षपक्षयोः।

तृणारविंदचक्षुषोः प्रजामहीमहेन्द्रयोः समं प्रवर्तयन्मनः कदा सदाशिवं भजे ॥१२॥
कदा निलिंपनिर्झरी निकुंजकोटरे वसन्‌ विमुक्तदुर्मतिः सदा शिरःस्थमंजलिं वहन्‌।

विमुक्तलोललोचनो ललामभाललग्नकः शिवेति मंत्रमुच्चरन्‌ कदा सुखी भवाम्यहम्‌ ॥१३॥

निलिम्प नाथनागरी कदम्ब मौलमल्लिका-निगुम्फनिर्भक्षरन्म धूष्णिकामनोहरः।

तनोतु नो मनोमुदं विनोदिनींमहनिशं परिश्रय परं पदं तदंगजत्विषां चयः ॥१४॥

प्रचण्ड वाडवानल प्रभाशुभप्रचारणी महाष्टसिद्धिकामिनी जनावहूत जल्पना।

विमुक्त वाम लोचनो विवाहकालिकध्वनिः शिवेति मन्त्रभूषगो जगज्जयाय जायताम्‌ ॥१५॥
इमं हि नित्यमेव मुक्तमुक्तमोत्तम स्तवं पठन्स्मरन्‌ ब्रुवन्नरो विशुद्धमेति संततम्‌।
हरे गुरौ सुभक्तिमाशु याति नान्यथागतिं विमोहनं हि देहिनांं सुशंकरस्य चिंतनम् ॥१६॥

पूजाऽवसानसमये दशवक्रत्रगीतं यः शम्भूपूजनपरम् पठति प्रदोषे।

तस्य स्थिरां रथगजेंद्रतुरंगयुक्तां लक्ष्मी सदैव सुमुखीं प्रददाति शम्भुः ॥१७॥

॥ इति रावणकृतं शिव ताण्डवस्तोत्रं सम्पूर्णम् ॥

 December 6, 2019 

शनि वज्र कवच पाठ

इस वज्र शनि कवच का पाठ ११ बार और २१ शनिवार तक करना चाहिये. यह शनि वज्र पाठ सभी कष्टों से मुक्ति प्रदान करने वाला और शनि देव को प्रसन्न करने वाला होता है।

श्री गणेशाय नमः ॥
विनियोगः ।
ॐ अस्य श्रीशनैश्चरवज्रपञ्जर कवचस्य कश्यप ऋषिः,
अनुष्टुप् छन्दः, श्री शनैश्चर देवता,
श्रीशनैश्चर प्रीत्यर्थे जपे विनियोगः ॥
ऋष्यादि न्यासः । श्रीकश्यप ऋषयेनमः शिरसि ।
अनुष्टुप् छन्दसे नमः मुखे ।
श्रीशनैश्चर देवतायै नमः हृदि ।
श्रीशनैश्चरप्रीत्यर्थे जपे विनियोगाय नमः सर्वाङ्गे ॥
ध्यानम् ।


नीलाम्बरो नीलवपुः किरीटी गृध्रस्थितस्त्रासकरो धनुष्मान् ।
चतुर्भुजः सूर्यसुतः प्रसन्नः सदा मम स्याद् वरदः प्रशान्तः ॥ १॥
ब्रह्मा उवाच ॥


शृणुध्वमृषयः सर्वे शनिपीडाहरं महत् ।
कवचं शनिराजस्य सौरेरिदमनुत्तमम् ॥ २॥
कवचं देवतावासं वज्रपंजरसंज्ञकम् ।
शनैश्चरप्रीतिकरं सर्वसौभाग्यदायकम् ॥ ३॥
ॐ श्रीशनैश्चरः पातु भालं मे सूर्यनन्दनः ।
नेत्रे छायात्मजः पातु पातु कणौं यमानुजः ॥ ४॥
नासां वैवस्वतः पातु मुखं मे भास्करः सदा ।
स्निग्धकण्ठश्च मे कण्ठं भुजौ पातु महाभुजः ॥ ५॥
स्कन्धौ पातु शनिश्चैव करौ पातु-शुभप्रदः ।
वक्षः पातु यमभ्राता कुक्षिं पात्वसितस्तथा ॥ ६॥
नाभिं ग्रहपतिः पातु मन्दः पातु कटिं तथा ।
ऊरू ममान्तकः पातु यमो जानुयुगं तथा ॥ ७॥
पादौ मन्दगतिः पातु सर्वांगं पातु पिप्पलः ।
अंगोपांगानि सर्वाणि रक्षेन् मे सूर्यनन्दनः ॥ ८॥
इत्येतत् कवचं दिव्यं पठेत् सूर्यसुतस्य यः ।
न तस्य जायते पीडा प्रीतो भवति सूर्यजः ॥ ९॥
व्यय-जन्म-द्वितीयस्थो मृत्युस्थानगतोऽपि वा ।
कलत्रस्थो गतो वाऽपि सुप्रीतस्तु सदा शनिः ॥ १०॥
अष्टमस्थे सूर्यसुते व्यये जन्मद्वितीयगे ।
कवचं पठते नित्यं न पीडा जायते क्वचित् ॥ ११॥
इत्येतत्कवचं दिव्यं सौरेर्यन्निर्मितं पुरा ।
द्वादशाऽष्टमजन्मस्थदोषान्नाशयते सदा ।
जन्मलग्नस्थितान् दोषान् सर्वान्नाशयते प्रभुः ॥ १२॥


॥ इति श्री ब्रह्माण्डपुराणे ब्रह्म-नारदसंवादे
शनिवज्रपंजरकवचम् सम्पूर्णम् ॥

 September 4, 2019 

सिद्ध कुंजिका स्त्रोत्र

सभी प्रकार की मनोकामनाओ की पुर्ति के लिये, सुखमय विवाहित जीवन के लिये, सुखमय पारिवारिक जीवन के लिये, मन पसंद जीवन साथी तथा भौतिक सुख के इस कुंजिका स्त्रोत्र का पाठ नियमित रूप से करना चाहिये.

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श्री गणेशाय नमः ।

ॐ अस्य श्रीकुञ्जिकास्तोत्रमन्त्रस्य सदाशिव ऋषिः, अनुष्टुप् छन्दः, श्रीत्रिगुणात्मिका देवता, ॐ ऐं बीजं, ॐ ह्रीं शक्तिः, ॐ क्लीं कीलकम्, मम सर्वाभीष्टसिद्ध्यर्थे जपे विनियोगः ।

शिव उवाच ।

शृणु देवि प्रवक्ष्यामि कुञ्जिकास्तोत्रमुत्तमम् ।

येन मन्त्रप्रभावेण चण्डीजापः शुभो भवेत् ॥ १॥

न कवचं नार्गलास्तोत्रं कीलकं न रहस्यकम् ।

न सूक्तं नापि ध्यानं च न न्यासो न च वार्चनम् ॥ २॥

कुञ्जिकापाठमात्रेण दुर्गापाठफलं लभेत् ।

अति गुह्यतरं देवि देवानामपि दुर्लभम् ॥ ३॥

गोपनीयं प्रयत्नेन स्वयोनिरिव पार्वति ।

मारणं मोहनं वश्यं स्तम्भनोच्चाटनादिकम् ।

पाठमात्रेण संसिद्ध्येत् कुञ्जिकास्तोत्रमुत्तमम् ॥ ४॥

अथ मन्त्रः ।

ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे ।

ॐ ग्लौं हुं क्लीं जूं सः ज्वालय ज्वालय ज्वल ज्वल प्रज्वल प्रज्वल

ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे ज्वल हं सं लं क्षं फट् स्वाहा ॥ ५॥

इति मंत्रः ।

श्रूँ श्रूँ श्रूँ शं फट् ऐं ह्रीं क्लीं ज्वल उज्ज्वल प्रज्वल

ह्रीं ह्रीं क्लीं स्रावय स्रावय शापं नाशय नाशय

श्रीं श्रीं श्रीं जूं सः स्रावय आदय स्वाहा ।

ॐ श्लीं हूँ क्लीं ग्लां जूं सः ज्वल उज्ज्वल मन्त्रं

प्रज्वल हं सं लं क्षं फट् स्वाहा ।

नमस्ते रुद्ररूपिण्यै नमस्ते मधुमर्दिनि ।

नमः कैटभहारिण्यै नमस्ते महिषार्दिनि ॥ ६॥

नमस्ते शुम्भहन्त्र्यै च निशुम्भासुरघातिनि ।

जाग्रतं हि महादेवि जपं सिद्धं कुरूष्व मे ॥ ७॥

ऐङ्कारी सृष्टिरूपायै ह्रीङ्कारी प्रतिपालिका ।

क्लीङ्कारी कामरूपिण्यै बीजरूपे नमोऽस्तु ते ॥ ८॥

चामुण्डा चण्डघाती च यैकारी वरदायिनी ।

विच्चे चाभयदा नित्यं नमस्ते मन्त्ररूपिणि ॥ ९॥

धां धीं धूं धूर्जटेः पत्नी वां वीं वूं वागधीश्वरी ।

क्रां क्रीं क्रूं कुञ्जिका देवि शां शीं शूं मे शुभं कुरु ॥ १०॥

कालिका देवि

हुं हुं हुङ्काररूपिण्यै जं जं जं जम्भनादिनी ।

ज्रां ज्रीं ज्रूं भालनादिनी ।

भ्रां भ्रीं भ्रूं भैरवी भद्रे भवान्यै ते नमो नमः ॥ ११॥

अं कं चं टं तं पं यं शं वीं दुं ऐं वीं हं क्षं ।

धिजाग्रम् धिजाग्रं त्रोटय त्रोटय दीप्तं कुरु कुरु स्वाहा ॥ १२॥

ॐ अं कं चं टं तं पं सां विदुरां विदुरां विमर्दय विमर्दय

ह्रीं क्षां क्षीं स्रीं जीवय जीवय त्रोटय त्रोटय

जम्भय जंभय दीपय दीपय मोचय मोचय

हूं फट् ज्रां वौषट् ऐं ह्ऱीं क्लीं रञ्जय रञ्जय

सञ्जय सञ्जय गुञ्जय गुञ्जय बन्धय बन्धय

भ्रां भ्रीं भ्रूं भैरवी भद्रे सङ्कुच सङ्कुच

त्रोटय त्रोटय म्लीं स्वाहा ॥ १२॥

पां पीं पूं पार्वती पूर्णा खां खीं खूं खेचरी तथा ।

म्लां म्लीं म्लूं मूलविस्तीर्णा कुञ्जिकास्तोत्र हेतवे ।

सां सीं सूं सप्तशती देव्या मंत्रसिद्धिं कुरूष्व मे ॥ १३॥

कुञ्जिकायै नमो नमः ।

इदं तु कुञ्जिकास्तोत्रं मन्त्रजागर्तिहेतवे ।

अभक्ते नैव दातव्यं गोपितं रक्ष पार्वति ॥ १४॥

यस्तु कुञ्जिकया देवि हीनां सप्तशतीं पठेत् ।

न तस्य जायते सिद्धिररण्ये रोदनं यथा ॥ १५॥

। इति श्रीरुद्रयामले गौरीतन्त्रे शिवपार्वतीसंवादे कुञ्जिकास्तोत्रं सम्पूर्णम् ।

 August 26, 2019 

Kanakdhara Stotram

श्री कनकधारा स्तोत्रम्

रिद्धी-सिद्धी, धन-धान्य, सभी तरह की भौतिक सुख के लिये इस स्त्रोत्र का नियमित पाठ करना चाहिये...

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अङ्गं हरेः पुलकभूषणमाश्रयन्ती भृङ्गाङ्गनेव मुकुलाभरणं तमालम्।

अङ्गीकृताऽखिल-विभूतिरपाङ्गलीला माङ्गल्यदाऽस्तु मम मङ्गळदेवतायाः ॥1॥

मुग्धा मुहुर्विदधती वदने मुरारेः प्रेमत्रपा-प्रणहितानि गताऽऽगतानि।

मालादृशोर्मधुकरीव महोत्पले या सा मे श्रियं दिशतु सागरसम्भवायाः ॥2॥

विश्वामरेन्द्रपद-वीभ्रमदानदक्ष आनन्द-हेतुरधिकं मुरविद्विषोऽपि।

ईषन्निषीदतु मयि क्षणमीक्षणर्द्ध मिन्दीवरोदर-सहोदरमिन्दिरायाः ॥3॥

आमीलिताक्षमधिगम्य मुदा मुकुन्द आनन्दकन्दमनिमेषमनङ्गतन्त्रम्।

आकेकरस्थित-कनीनिकपक्ष्मनेत्रं भूत्यै भवेन्मम भुजङ्गशयाङ्गनायाः ॥4॥

बाह्वन्तरे मधुजितः श्रित कौस्तुभे या हारावलीव हरिनीलमयी विभाति।

कामप्रदा भगवतोऽपि कटाक्षमाला, कल्याणमावहतु मे कमलालयायाः ॥5॥

कालाम्बुदाळि-ललितोरसि कैटभारे-धाराधरे स्फुरति या तडिदङ्गनेव।

मातुः समस्तजगतां महनीयमूर्ति-भद्राणि मे दिशतु भार्गवनन्दनायाः ॥6॥

प्राप्तं पदं प्रथमतः किल यत् प्रभावान् माङ्गल्यभाजि मधुमाथिनि मन्मथेन।

मय्यापतेत्तदिह मन्थर-मीक्षणार्धं मन्दाऽलसञ्च मकरालय-कन्यकायाः ॥7॥

दद्याद् दयानुपवनो द्रविणाम्बुधारा मस्मिन्नकिञ्चन विहङ्गशिशौ विषण्णे।

दुष्कर्म-घर्ममपनीय चिराय दूरं नारायण-प्रणयिनी नयनाम्बुवाहः ॥8॥

इष्टाविशिष्टमतयोऽपि यया दयार्द्र दृष्ट्या त्रिविष्टपपदं सुलभं लभन्ते।

दृष्टिः प्रहृष्ट-कमलोदर-दीप्तिरिष्टां पुष्टिं कृषीष्ट मम पुष्करविष्टरायाः ॥9॥

गीर्देवतेति गरुडध्वजभामिनीति शाकम्भरीति शशिशेखर-वल्लभेति।

सृष्टि-स्थिति-प्रलय-केलिषु संस्थितायै तस्यै नमस्त्रिभुवनैकगुरोस्तरुण्यै ॥10॥

श्रुत्यै नमोऽस्तु नमस्त्रिभुवनैक-फलप्रसूत्यै रत्यै नमोऽस्तु रमणीय गुणाश्रयायै।

शक्त्यै नमोऽस्तु शतपत्र निकेतनायै पुष्ट्यै नमोऽस्तु पुरुषोत्तम-वल्लभायै ॥11॥

नमोऽस्तु नालीक-निभाननायै नमोऽस्तु दुग्धोदधि-जन्मभूत्यै।

नमोऽस्तु सोमामृत-सोदरायै नमोऽस्तु नारायण-वल्लभायै ॥12॥

नमोऽस्तु हेमाम्बुजपीठिकायै नमोऽस्तु भूमण्डलनायिकायै।

नमोऽस्तु देवादिदयापरायै नमोऽस्तु शार्ङ्गायुधवल्लभायै ॥13॥

नमोऽस्तु देव्यै भृगुनन्दनायै नमोऽस्तु विष्णोरुरसि स्थितायै।

नमोऽस्तु लक्ष्म्यै कमलालयायै नमोऽस्तु दामोदरवल्लभायै ॥14॥

नमोऽस्तु कान्त्यै कमलेक्षणायै नमोऽस्तु भूत्यै भुवनप्रसूत्यै।

नमोऽस्तु देवादिभिरर्चितायै नमोऽस्तु नन्दात्मजवल्लभायै ॥15॥

त्वद्-वन्दनानि दुरिताहरणोद्यतानि मामेव मातरनिशं कलयन्तु नान्यत् ॥16॥

कमले कमलाक्षवल्लभे त्वं करुणापूर-तरङ्गितैरपाङ्गैः।

अवलोकय मामकिञ्चनानां प्रथमं पात्रमकृत्रिमं दयायाः ॥17॥

स्तुवन्ति ये स्तुतिभिरमीभिरन्वहं त्रयीमयीं त्रिभुवनमातरं रमाम्।

गुणाधिका गुरुतरभाग्यभागिनो भवन्ति ते भुविबुधभाविताशयाः ॥18॥

 April 14, 2019 

आदित्य हृदय स्त्रोत

इस आदित्य हृदय स्त्रोत का ५ पाठ नियमित रूप से करने से मन की इच्छाये पूर्ण होती है.

विनियोग

ॐ अस्य आदित्यह्रदय स्तोत्रस्य अगस्त्यऋषि: अनुष्टुप्छन्दः आदित्यह्रदयभूतो

भगवान् ब्रह्मा देवता निरस्ताशेषविघ्नतया ब्रह्माविद्यासिद्धौ सर्वत्र जयसिद्धौ च विनियोगः

पूर्व पिठिता

ततो युद्धपरिश्रान्तं समरे चिन्तया स्थितम्‌ । रावणं चाग्रतो दृष्ट्वा युद्धाय समुपस्थितम्‌ ॥1॥

दैवतैश्च समागम्य द्रष्टुमभ्यागतो रणम्‌ । उपगम्याब्रवीद् राममगस्त्यो भगवांस्तदा ॥2॥

राम राम महाबाहो श्रृणु गुह्मं सनातनम्‌ । येन सर्वानरीन्‌ वत्स समरे विजयिष्यसे ॥3॥

आदित्यहृदयं पुण्यं सर्वशत्रुविनाशनम्‌ । जयावहं जपं नित्यमक्षयं परमं शिवम्‌ ॥4॥

सर्वमंगलमागल्यं सर्वपापप्रणाशनम्‌ । चिन्ताशोकप्रशमनमायुर्वर्धनमुत्तमम्‌ ॥5॥

मूल -स्तोत्र 

रश्मिमन्तं समुद्यन्तं देवासुरनमस्कृतम्‌ । पुजयस्व विवस्वन्तं भास्करं भुवनेश्वरम्‌ ॥6॥

सर्वदेवात्मको ह्येष तेजस्वी रश्मिभावन: । एष देवासुरगणांल्लोकान्‌ पाति गभस्तिभि: ॥7॥

एष ब्रह्मा च विष्णुश्च शिव: स्कन्द: प्रजापति: । महेन्द्रो धनद: कालो यम: सोमो ह्यापां पतिः ॥8॥

पितरो वसव: साध्या अश्विनौ मरुतो मनु: । वायुर्वहिन: प्रजा प्राण ऋतुकर्ता प्रभाकर: ॥9॥

आदित्य: सविता सूर्य: खग: पूषा गभस्तिमान्‌ । सुवर्णसदृशो भानुर्हिरण्यरेता दिवाकर: ॥10॥

हरिदश्व: सहस्त्रार्चि: सप्तसप्तिर्मरीचिमान्‌ । तिमिरोन्मथन: शम्भुस्त्वष्टा मार्तण्डकोंऽशुमान्‌ ॥11॥

हिरण्यगर्भ: शिशिरस्तपनोऽहस्करो रवि: । अग्निगर्भोऽदिते: पुत्रः शंखः शिशिरनाशन: ॥12॥

व्योमनाथस्तमोभेदी ऋग्यजु:सामपारग: । घनवृष्टिरपां मित्रो विन्ध्यवीथीप्लवंगमः ॥13॥

आतपी मण्डली मृत्यु: पिगंल: सर्वतापन:। कविर्विश्वो महातेजा: रक्त:सर्वभवोद् भव: ॥14॥

नक्षत्रग्रहताराणामधिपो विश्वभावन: । तेजसामपि तेजस्वी द्वादशात्मन्‌ नमोऽस्तु ते ॥15॥

नम: पूर्वाय गिरये पश्चिमायाद्रये नम: । ज्योतिर्गणानां पतये दिनाधिपतये नम: ॥16॥

जयाय जयभद्राय हर्यश्वाय नमो नम: । नमो नम: सहस्त्रांशो आदित्याय नमो नम: ॥17॥

नम उग्राय वीराय सारंगाय नमो नम: । नम: पद्मप्रबोधाय प्रचण्डाय नमोऽस्तु ते ॥18॥

ब्रह्मेशानाच्युतेशाय सुरायादित्यवर्चसे । भास्वते सर्वभक्षाय रौद्राय वपुषे नम: ॥19॥

तमोघ्नाय हिमघ्नाय शत्रुघ्नायामितात्मने । कृतघ्नघ्नाय देवाय ज्योतिषां पतये नम: ॥20॥

तप्तचामीकराभाय हरये विश्वकर्मणे । नमस्तमोऽभिनिघ्नाय रुचये लोकसाक्षिणे ॥21॥

नाशयत्येष वै भूतं तमेष सृजति प्रभु: । पायत्येष तपत्येष वर्षत्येष गभस्तिभि: ॥22॥

एष सुप्तेषु जागर्ति भूतेषु परिनिष्ठित: । एष चैवाग्निहोत्रं च फलं चैवाग्निहोत्रिणाम्‌ ॥23॥

देवाश्च क्रतवश्चैव क्रतुनां फलमेव च । यानि कृत्यानि लोकेषु सर्वेषु परमं प्रभु: ॥24॥

एनमापत्सु कृच्छ्रेषु कान्तारेषु भयेषु च । कीर्तयन्‌ पुरुष: कश्चिन्नावसीदति राघव ॥25॥

पूजयस्वैनमेकाग्रो देवदेवं जगप्ततिम्‌ । एतत्त्रिगुणितं जप्त्वा युद्धेषु विजयिष्यसि ॥26॥

अस्मिन्‌ क्षणे महाबाहो रावणं त्वं जहिष्यसि । एवमुक्ता ततोऽगस्त्यो जगाम स यथागतम्‌ ॥27॥

एतच्छ्रुत्वा महातेजा नष्टशोकोऽभवत्‌ तदा ॥ धारयामास सुप्रीतो राघव प्रयतात्मवान्‌ ॥28॥

आदित्यं प्रेक्ष्य जप्त्वेदं परं हर्षमवाप्तवान्‌ । त्रिराचम्य शूचिर्भूत्वा धनुरादाय वीर्यवान्‌ ॥29॥

रावणं प्रेक्ष्य हृष्टात्मा जयार्थं समुपागतम्‌ । सर्वयत्नेन महता वृतस्तस्य वधेऽभवत्‌ ॥30॥

अथ रविरवदन्निरीक्ष्य रामं मुदितमना: परमं प्रहृष्यमाण: ।

निशिचरपतिसंक्षयं विदित्वा सुरगणमध्यगतो वचस्त्वरेति ॥31॥

।।सम्पूर्ण ।।